अमेरिका की सिलिकॉन वैली से निकली फेसबुक कब दुनिया के कोने कोने नाप गयी, यह
तो इतिहास का विषय है..पर कब और कैसे फेसबुक के जरिये जनमानस को इस कदर प्रभावित
किया जाने लगा कि किसी एक ताकत के इशारे पर देश बदलने लगे, सरकारें
बदलने लगी, सत्ता बदलने लगी, यहां तक
कि लोकतंत्र के मायने ही बदल गए..यह जरूर मंत्रणा का विषय है.
आपको याद होगा वर्ष 2016 का अमेरिकी चुनाव या ब्रेक्सिट
जनमत संग्रहण या फिर नाइजीरिया के चुनाव..थे तो ये सभी अलग अलग, परन्तु इनमें एक कॉमन सा संबंध था और वह थी इस सभी में फेसबुक की भूमिका
और जनमानस में बदलाव. इस साल की पहली तिमाही में ही हर ओर “कैंब्रिज एनालिटिका प्रकरण” का शोर था, चर्चाएं थी फेसबुक के जरिये चुनावों को
प्रभावित किये जाने की, जनता के मत, उनकी
भावनाओं को अपने लाभ के लिए मनोविज्ञान और तकनीक के समागम से बदल डालने की.
इन खबरों से विश्व जैसे सकते में आ गया, लोगों का डेटा चुराया
गया और उसका अनुचित उपयोग किया गया. लोकतांत्रिक व्यवस्था, जो
भारत सहित विश्व के लगभग 123 देशों की रीढ़ बनकर अपनी पारदर्शी,
स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनावी प्रणाली से जनमत को सर्वोपरि रख रही
थी..फेसबुक से जुड़ी इस एक खबर से तितर-बितर सी हो गयी.
जिस सूचना तकनीक को आज तक लोकतंत्र की प्राणवायु माना जाता था, वही
आज फेसबुक के रूप में लोकतांत्रिक ढांचें पर प्रहार करने लगी. वर्तमान परिप्रेक्ष्य
को देखते हुए आज वास्तव में फेसबुक तंत्र की व्यापकता को समझने की आवश्यकता है.
फेसबुक वास्तव में क्या है, लोकतांत्रिकता को इससे
कैसे खतरा हो सकता है और वो कौन से समाधान हैं, जिनके माध्यम
से हम फेसबुक के संभावित खतरों को अल्प कर सकते हैं? इन्हीं सब
विषयों पर हमारी विशेषज्ञ टीम श्री राकेश प्रसाद (संस्थापक एवं तकनीकी विशेषज्ञ,
बैलटबॉक्सइंडिया) एवं श्री शरीक मनाज़िर (सेंटर ऑफ़ द स्टडी ऑफ सोशल
पालिसी, जेएनयू) ने चर्चा कर आम जन को फेसबुक के असल स्वरुप
से रूबरू कराया. पेश हैं इस चर्चा के प्रमुख अंश.
भाग 1 – फेसबुक और इसका वास्तविक उद्देश्य क्या है?
सबसे पहले तो एक विषय यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि
सोशल मीडिया और फेसबुक ये दोनों अलग अलग चीज़ें हैं,
हाँ आज लोग एकदम से पूछने पर, फेसबुक को ही
सोशल मीडिया बोल दिया जा रहा हैं, मगर फेसबुक आज के सोशल
मीडिया में आयी एक विकृति है, जिसके परिणाम विश्व में लोग
झेल रहे हैं.
सोशल मीडिया गांधी के समय भी था,
जब उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए अभियान चलाये थे, पैगम्बर साहब के समय भी था, जीसस क्राइस्ट के समय भी
था, श्री राम, श्री कृष्ण, वेद व्यास, विवेकानंद सबने उस समय की मज़बूत
विकृतियों के खिलाफ़ सोशल मीडिया का उपयोग करके ही बदलाव लाये थे.
फेसबुक इसी स्वतंत्र सोशल मीडिया पर कुछ उपनिवेशवादी
सोच रखने वाले बड़े लोगों का कब्ज़ा है, जिससे
अगला गांधी ना पैदा हो सके और अगर गलती से हो भी जाए तो उसकी दीनता के साथ लोग खड़े
हो कर दो तीन सेल्फी खींचे और लाइक बटोर कर आगे बढ़ जाएँ.
उदाहरणस्वरुप आज लोग एक तरफ़ अमिताभ बच्चन की बिग
बिलियन डे वाली सेल्फी देख कर अपने हवा पानी को बर्बाद कर रहे हैं,
दूसरी तरफ़ उनके स्वच्छता अभियान के लिए झाड़ू ले कर कैमरे के आगे खड़े
होने के लिए धक्कामुक्की कर रहे हैं.
एक बड़ा वैज्ञानिक गंगा के लिए अनशन करते हुए मारा
जाता है, मगर टिहरी बाँध पर, हमारी सीवरेज व्यवस्था पर, गंगत्व पर, हमारी संस्कृति पर एक व्यापक अभियान नहीं चला पाते हैं और लोग बस पोस्ट
लाइक और वायरल के पीछे भागते रहते हैं.
दूसरी प्रतिक्रिया आयी है कि अब शहर में तो लोग
फेसबुक वेसबुक का इस्तेमाल नहीं करते हैं. देखिये फेसबुक हो या इस तरह के कोई भी
काम इनकी अपनी एक शेल्फ़ लाइफ होती है, जो
दूसरी सीढ़ी पर ले जाने के लिए रास्ता बनती है, शहर शायद
स्नेपचैट, क्योरा आदि की वर्चुअल रियलिटी की ओर निकल चुके
हैं, मगर एक विकृति जो आयी है, उसको
समझना ज़रूरी है.
सर्वप्रथम इस विषय पर अपनी विचारधारा स्पष्ट करते हुए शरीक मनाज़िर ने बताया :
यदि देखा जाये तो फेसबुक से प्रजातंत्र को दो खतरे हैं. पहला औपनिवेशिक
खतरा कि कैसे पूरा सिस्टम चल रहा है और कैसे इसका प्रभाव प्रजातंत्र पर हो रहा है.
सोचिये कि क्या कभी ऐसा हो सकता है कि एक प्राईवेट कंपनी या किसी भी प्रकार की एक
उपनिवेशिक कंपनी किसी दूसरे देश में जाए और वहां कि सरकार से कहे आपका शासन हम
आसान कर देते हैं, आपको प्लेटफ़ार्म भी हम देंगे बस आप हमको सत्ता चलाने
दीजिए. यह कम हम आप से भी बेहतर तरीके से करेंगे.
फिर, दूसरे स्तर पर वो सरकार से कहे कि अपने शासन का थोड़ा
हिस्सा और हमको दे दीजिए, जिससे हम भी पैसा कमाएं. तीसरे
स्तर पर, वो सरकार से अगर ये कहे कि आप केवल फेस हैं,
असल काम हम करेंगे. तो लोग ये सोचेंगे कि क्या ऐसा कभी हुआ है,
लेकिन भारत के साथ कुछ ऐसी ही स्थिति रही है, मानव
जाति अपने इतिहास से कभी कुछ सीखती नहीं और खासतौर पर जब हम अपने भारत की बात करें
तो ये हमारी खूबसूरती है कि हमारे यहां पहले ये हो चुका है.
पढ़ें - Indian Colonization and a $45 Trillion Fake-Narration
जब दो भारतीय आपस में बात करते हैं, तो हमको पता होता है
कि वो क्या बात कर रहे हैं. एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी, जो
भारत में आई उसने पहले राजा महाराजाओं को कहा कि हमारे पास सिस्टम अच्छा है,
सब कुछ सुनियोजित है, आप हमे दीजिए, आपका शासन हम और अधिक अच्छा कर देंगे. फिर, दूसरे
स्तर पर उन्होंने कहा कि जो आप लगान लेते हैं, वो हमें लेने
दीजिए और इसको एकजुट करके हम आपको पैसा देंगे. कैसे काम करना है वो हमारी
जिम्मेदारी है.
तीसरे स्तर पर वो सरकार के पीछे पड़ गई. राजा महराजाओं से उन्होंने कहा कि
आप बैठिए और हर महीने का भत्ता लीजिए. आखिरी स्तर पर उन्होंने कहा कि हम अब कंपनी
नही हैं, हम आपके देश की सरकार हैं औऱ आपको हमसे लड़ना होगा.
अब बात करते हैं दूसरे खतरे की , यानि डेटा चोरी की. अगर हम देंखें तो यह सारा खेल लोगों के डेटा के साथ हो रहा है. फेसबुक जब पहली बार देश में आई तो किसी को इतना पता नही था कि ये और क्या काम कर सकती है. देखा जाये तो प्रेस, सत्ता, चुनाव, मार्केटिंग, डाटा सुरक्षा अगर चुनाव की बात की जाये तो उसमें वोटर्स बढ़ाने होते हैं और इन सब कामों के लिए फेसबुक एक माध्यम है.
समस्या
यह है कि मार्क ज़ुकरबर्ग ने कहा था 2019 में जब भारत में चुनाव होंगे तो हम पूरी कोशिश करेंगे कि कोई छेड़छाड़ न
हो. तो इस पर निर्वाचन आयोग को प्रश्न करना चाहिए कि एक अमेरिकन प्राईवेट कंपनी
भारत में ऐसे बयान क्यों दे रही है? इसका मतलब ये हुआ कि
भारत की लोकतांत्रिक अवस्था ऐसी है, जिसको हस्तक्षेप किया जा
सकता है. यह एक बहुत आश्चर्यजनक सवाल है कि एक उपनिवेशिक कंपनी है, जिसका अगर कुल रेवेन्यु दर देखेंगे तो उसका 5 प्रतिशत
भी भारत में नहीं है, लेकिन फिर भी वह यहां की नीतियों और
लोकतांत्रिक ढांचें को काफी हद तक हस्तक्षेप करती है.
अब अगर प्रेस की बात करे तो भारत में लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं न्यायतंत्र, प्रेस,
पुलिस, राजनीति. हर चीज फेसबुक पर इस हद तक
निर्भर है कि सरकार को विज्ञापन देने के लिए यही प्लेटफार्म प्रयोग करना पड़ रहा
है. भारत सरकार का एक प्रेस ब्यूरो होता है और ये सारा काम उनका होता है, लेकिन सरकार वो ब्यूरो छोड़कर फेसबुक पर आ गई है.
बहुत सारे अखबारों में ये छपता है कि कैसे सरकार सोशल मीडिया और आईसीटी के
माध्यम से लोगों को नियंत्रित कर रही है. परन्तु वास्तव में सरकार लोगों को
नियंत्रित नही कर रही है बल्कि सरकार लोगों को खो रही है. सोशल मीडिया के माध्यम
से लोगों पर से नियंत्रण और उनका राईट दोनों को खो रही है. जब कंपनी आती है तो
लोगों को प्लेटफार्म देती है, पहले तो लोग उसे मज़ाक में लेते हैं.
उसके बाद वो इतनी बढ़ जाती है कि जो लोकतंत्र का आधार स्तंभ है यानि कि इलेक्शन,
उस पर सबसे ज्यादा असर करता है.
जब
फेसबुक कहता है कि इस बार भारतीय चुनाव में छेड़छाड़ नही होने देंगे,
लेकिन वहीँ अमेरिका, ब्रेक्सिट जनमत या
नाइजीरिया आदि देश इससे बच नहीं पाए और फेसबुक इस बात पर अभी तक कोर्ट में जवाब दे
रहे हैं तो भारत में कैसे रोक लेगें. आज विभिन्न देशों में फेसबुक को लेकर अलग-अलग
मुद्दे चल रहे हैं, जब वहां आज तक सबकुछ ठीक नही हुआ तो भारत
जैसे देश में कैसे ठीक होगा.
अगर हम चीन की बात करे तो वहां पर कम्युनिस्ट सरकार है, वहां
की सरकार ही सब कुछ करती है, तो फेसबुक ने वहां के लोगों का
मूल्यांकन करना शुरू कर दिया. मार्केट में उनके बायोमेट्रिक प्रणाली है जिससे वो
लोगों को स्कोर्स देते है और लोन के हिसाब से लोग सफर कर सकते हैं. चीन एक
कम्युनिस्ट देश है लेकिन जब हम भारत की बात करते हैं तो उनके लिए फेसबुक एक राजस्व
विभाग है.
इसी मुद्दे पर ओर अधिक प्रकाश डालते हुए राकेश जी ने फेसबुक का प्रारंभिक इतिहास बताते हुए समझाया :
एक फिल्म का प्रसंग याद आता है, जब प्रथम विश्व युद्ध
में लड़ा सैनिक पिता अपने द्वितीय विश्वयुद्ध से लौटे पायलट पुत्र से पूछता है कि
कितने लोगों को मारने पर यह वीरता का मेडल तुम्हें मिला है, जिसका
अंदाजा पुत्र को है ही नहीं और पिता इस बात पर नाराज़ है कि कम से कम उसके समय में
मारने से पहले आखोँ में तो देखते थे. चार मील दूर से बम तो नहीं गिराते थे.
फेसबुक की शुरुआत भी इसी प्रकार दूर से बम गिराने की प्रक्रिया से शुरू हुई
थी.
मार्क ज़करबर्ग ने अपने कॉलेज के दिनों में कॉलेज की लड़कियों में कौन सबसे
हॉट या सुन्दर है, उसकी एक पोलिंग वेबसाइट बनाई थी और कॉलेज की हर लड़की की
फोटो कॉलेज के सिस्टम से हैक कर के उसमें डाल दी थी.
ये हार्वर्ड में बड़ी हिट हुई, हज़ारों छात्रों ने
इसमें भाग लिया. इस पर काफ़ी बवाल भी मचा. कॉलेज के एडमिनिस्ट्रेशन ने इनकी साईट को
बंद करवाया और इनको प्राइवेसी के हनन, संस्था की सिक्योरिटी
के साथ खिलवाड़ और कॉपीराइट इत्यादि के केस ने कॉलेज से निष्काषित भी कर दिया.
बाद में मामला सुलटा और उसके बाद मार्क ज़करबर्ग ने अपने इसी प्रोज़ेक्ट को
विस्तार देते हुए बनाया फेसबुक. यानि चेहरे या सेल्फी की किताब.
दुनिया में अब तक जितने भी पैगम्बर, भगवान, अवतार या जितने भी संत हुए हैं, सबने जिस इंसानी अहम
को दबाने के लिए बड़ी बड़ी किताबें, ग्रन्थ लिख दिए. फेसबुक और
इसके इन्वेस्टर्स ने एक ही झटके में उन सब की मेहनत पर पानी फेर दिया.
आज जब रूस को विलेन बना कर पूरा ठीकरा उसके सर फोड़ दिया जा रहा है, वर्ष 2009 में रूसी होल्डिंग कंपनी DST ने 200 मिलियन की इन्वेस्टमेंट फेसबुक में की थी, जिससे इसकी वैल्यूएशन काफी तेज़ी से बढ़ी थी. साथ ही 2009 मे मेज़यिंगा के फेसबुक गेम एप्प फार्म विले में 180 मिलियन डॉलर की इन्वेस्टमेंट की थी. फार्म विल, जिसके तकरीबन 8 करोड़ खिलाडी थे (जिसे हम सबने खेला होगा) के बारे में एक्सपर्ट्स कहते हैं कि, इसी ने कैंब्रिज एनालिटिका और एलेग्जेंडर कोगन के इट्स योर डिजिटल लाइफ और इसी तरह के हार्वेस्टिंग एप के बीज बोये. लोग फेसबुक पर बैंगन और कपास उगाने में इतने खो गए कि एक क्लिक में अपना सारा डाटा देने की आदत डाल बैठे.
फेसबुक और इसके इस्तेमाल करने वालों में सेल्फ एस्टीम की कमी, सेल्फी
यानि सेल्फ प्रमोशन और अहंकार की जो भी रिसर्च रिपोर्ट्स कई सालों से आती रही हैं
और हाल फ़िलहाल में जो कंप्यूटर प्रोग्राम संचालित साइकोलॉजिकल लूप्स की बात आती है,
उसका कारण इसका शुरुआती बिज़नस मॉडल रहा है.
अभिनेताओं या इसी तरह के लोगों की एक परफेक्ट इमेज बना कर, उसको
लाइक और फॉलो द्वारा सत्यापित कर, उनके साथ कुछ प्रोडक्ट्स
बेचना इनका बिज़नस मॉडल था.
आज जब लोग कैंब्रिज एनालिटिका के क्रिस्टोफर कोगन को जानते हैं, जो कि कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के बड़े मनोवैज्ञानिक हैं, जिनके बारे में ट्रम्प जी के लिए परोक्ष डाटा चोरी किया, इत्यादि बातें होती हैं. इनकी कंपनी ग्लोबल रिसर्च ग्रुप (GSR) के सह डायरेक्टर जोसेफ चांसलर फेसबुक में ही 2015 से एक रिसर्च मनोवैज्ञानिक की तरह काम कर रहे हैं.
तकरीबन 2008 के ओबामा इलेक्शन से ही फेसबुक, राजनितिक पार्टियों और नेताओं के साथ मिल कर अपने कस्टमर्स का डाटा माइन कर और करवा रहा है और बेच रहा है. 2008 के ओबामा कैंपेन से जुड़े लोग हों या 2016 के ट्रम्प कैंपेन के लोग हों, सब एक ही बात कहते हैं. फेसबुक के माध्यम से उन्हें लोगों की पसंद नापसंद का बड़ा ही महीन डाटा मिला, अगर सिर्फ ट्रम्प जी के कैंपेन की बात करें तो पूरे साल हर दिन 50-60 हज़ार विज्ञापन के वेरिएशन चलाया जाना संभव हो पाया.
और ऐसा नहीं है कि बस कैंपेन की टीमें ही इस महाकाय कार्य को करती हैं, इन बड़े बड़े कैंपेन में फेसबुक के तकनीकी एक्सपर्ट्स इनके ऑफिस में मिल कर काम करते रहे हैं और इसे स्टैण्डर्ड प्रैक्टिस का नाम दिया गया है.
यानि हर इंसान या एक जैसी पसंद वाले इंसानों को एक ही विज्ञापन उसके हिसाब
से थोडा थोडा बदल कर दिखाया गया. जैसे रंग बदल दिया, फॉण्ट बदल दिया,
मेसेज बदल दिया.
पोलिटिकल
विज्ञापन से जुड़े हर क़ानून, नियम,
मोरालिटी का इतने बड़े पैमाने पर इतनी तेज़ी से हनन क्रांतिकारी था,
सेल्स, मार्केटिंग और एडिटोरियल सब एक हो गए
थे और इस तकनीक ने ओबामा हों या ट्रम्प दोनों के लिए मज़बूत नतीज़ा दिखाया. फ़रक बस
इतना था कि ओबामा के समय फेसबुक ने सीधे ये काम किया था और ट्रम्प जी के लिए बाहर
की एजेंसी, जैसे कैंब्रिज एनालिटिका ने ये काम किया.
फेसबुक के डायरेक्टर जैसे शेरिल सैंड-बर्ग सीधे डेमोक्रेट के समर्थक रहे
हैं और खुल कर इनके चुनाव में पैसा देना, इनके लिए फण्ड इकठ्ठा
करना करते रहे हैं, पीटर थेल, जो कि
फेसबुक के बड़े बोर्ड मेम्बर और इन्वेस्टर हैं, ट्रम्प के
खुले समर्थक रहे हैं और चंदा देते रहे हैं.
आज जब कई बिलियन डॉलर का चुनावी खर्चा बताया जाता है और बड़े बड़े बिजनेस
इसमें पैसा लगाते हैं, यहाँ समझना ज़रूरी है कि ये पैसा आज इस तरह के बड़े ही महंगे
और जटिल विज्ञापन खा रहे हैं. ख़ासकर भारत जैसे देश में तो ये पैसा, डाटा के साथ, सीधे विदेश जा रहा है.
आज जो डाटा चोरी की बात हो रही है, ये डाटा चोरी का मामला
नहीं है. अगर आप तकनीकी रूप से देखेंगे तो मुद्दा सिर्फ ये है कि क्रिस्टोफर कोगन
ने जब पांच करोड़ लोगों से ज्यादा लोगों का डाटा अपने एप द्वारा कैंब्रिज एनालिटिका
को बेचा, तब वह कांट्रेक्टर थे या एम्प्लोयी. वो अगर
एम्प्लोयी होते तो कोई केस नहीं था. ऐसा कितने हज़ारों कोगन, रूसी,
चीनी वैज्ञानिकों ने किया, इसका कोई हिसाब
नहीं है या मिलना बेहद मुश्किल है. ख़ासकर अब, जब डाटा हैक से
70-80 लाख लोगों का निजी डाटा बिना भाव के कौन कौन से देश
में, किस किस के पास जाता है, किसी को
नहीं पता.
फेसबुक के कारोबार को अगर आप सीधे शब्दों में देखेंगे
तो.
1. जब कोई बिज़नेस बंद होता है, क्योंकि
उसके एम्प्लोयी काम नहीं करते बल्कि फेसबुक पर रहते हैं. - फेसबुक कमाता है.
2. जब लोगों का गुस्सा सड़क पर फटता है, क्योंकि अब कोई बात सुनने लायक नहीं रहती, जब तक बात
वायरल ना करवाया गया हो . – फेसबुक कमाता है.
3. आज जब राजनीति में कैडर ख़त्म हो रहा है और उसकी जगह
फेसबुक ले ले रहा है. आज जब रिपब्लिकन पार्टी जैसी पुरानी और मज़बूत पार्टी को भी
एक बिलकुल नया उद्योगपति कुछ बिलियन डॉलर खर्च कर अपने कब्ज़े में कर लेता है –
फेसबुक कमाता है.
4. आज जब प्रोफेसर परेशान हैं कि बच्चे पढ़ नहीं रहे, देश का ह्यूमन रिसोर्स गड्ढे में जा रहा हैं – फेसबुक कमाता है.
5. आज जब रूस में बैठ कर दस लोग पूरे अमेरिका के चुनाव पलट
कर रख देते हैं – फेसबुक कमाता है.
6. आज जब पत्रकार लोकल बीट कवर करना छोड़, फ़िल्म वालों के करतब, कारनामें, वायरल हो जाने वाली चीज़ें ही लिखते हैं. - फेसबुक ही कमाता है.
आज युद्ध से ले कर विकास सब फेसबुक पर होता है और इसे चलाने वाले बड़े
इन्वेस्टर्स, उद्योगपति, नेता अभिनेता, खुफ़िया एजेंसी, एजेंट सब उस लगातार कमज़ोर होते समाज
को टारगेट करने में लगे हैं.
और अगर आप ध्यान से ब्रिटेन, यूरोप और अमेरिकी
सेनेट में फेसबुक की पेशी देखेंगे तो पता चलेगा, किस तरह से
शासन प्रणाली बुरी तरह से नाकाम है, यूरोप और ब्रिटेन में तो
नेता ख़ाली कुर्सी पर उंगलियाँ भांजते रहे. वही अमेरिका सेनेट में, चुनाव में हुई धांधली की सुनवाई में ही ज़करबर्ग बोल गए कि अगले साल भारत
में होने वाले चुनाव में भी वो अपनी भूमिका ज़िम्मेदारी से निभाएँगे.
भाग 2 – फेसबुक से होने वाले खतरे किस प्रकार के हैं?
सिलिकॉन वैली अमेरिका से उठी प्रत्यारोपित टेक्नोलॉजी
फेसबुक जिस समाज में वो ऑपरेट कर रहे हैं, उससे सिर्फ लाभ के
अलावा जब कुछ लेना देना नहीं होता, तब इस तरह की घटनाएँ आम
हो जाती हैं. भारत, श्रीलंका में दंगों को ले लें या
फिर ब्रिटेन जैसे देश में ब्रेक्सिट यानि ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग करने
के अभियान में फेसबुक इत्यादि का गलत इस्तेमाल की ख़बरों और प्रशासनिक हलकों में
मची हलचल और खुद थेरेसा मे (ब्रिटेन की प्रधानमंत्री) की नाराज़गी, जैसे नीचे ये दावोस में दिया गया बयान:
फेसबुक आतंकियों, दास प्रथा और बच्चों पर अत्याचार
करने वालों की मदद कर रहा है.
फेसबुक इत्यादि के इस लाभ उन्माद ने उनके खुद के देश को भी नहीं छोड़ा, जब
जो बंदूकें दूसरों के लिए तानी गयी थी. उन्हीं को रूसी ट्रोल फैक्ट्रीज ने ट्रम्प
चुनाव में उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल कर लिया. फेसबुक के कान उनके देश के सेनेटर या
नेता तो ऐंठ कर अपने निजी राष्ट्र हित (अमेरिकी हित) में ला सकते हैं और भारत जैसे
कई देशों में उसके द्वारा तैयार किये गए "सोशल नेटवर्क" और उनका डेटा,
एक मोल भाव के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. फेसबुक से आज बहुत से संभावित खतरे निकल कर आ रहे हैं, जिन पर इस भाग में चर्चा की गयी.
यूजर्स डेटा चोरी के संबंध में अपना मत रखते हुए शरीक मनाज़िर ने कहा :
फेसबुक पर अगर यूजर्स ऑफिशियली अपना डेटा नहीं देते तो आप देखेंगे कि आज
बहुत से ऐसी मार्केटिंग कंपनियां हैं, जिनके लिए फेसबुक की
नीतियां बेहद लचर हैं और ये कंपनियां आराम से यूजर्स का डेटा निकाल सकती हैं.
उदाहरण
के तौर पर देंखे तो फेसबुक पर अक्सर कुछ सर्वे देखने को मिलते हैं,
जैसे आपका चेहरा किस अभिनेता या राजनेता से मिलता है और
प्राइमरी-हायर स्कूली विद्यार्थी या हमारे देश की रूरल बेल्ट के यूजर्स इनमें फंस
भी जाते हैं. इन एप्स पर जो टर्म्स एंड कंडीशन हैं, वह इतने
भयावह हैं कि आपकी सारी प्राइवेसी छिन जाती है.
यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि आज से कुछ वर्ष बाद अगर आर्टिफ़िशियल
इंटेलिजेंस से नए खतरे उत्पान हो जाये तो हमारे पास उनसे जूझने की कोई क्षमता नहीं
है. साथ ही कोई नहीं जानता कि इससे क्या परिणाम निकला कर आयेंगे. आप स्वयं ही
देखें तो आज फेसबुक हर देश की सरकार को वही लोलीपोप पकड़ा रही है, जो
कभी ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के राजाओं को पकडाई थी.
फेसबुक पूर्ण रूप से व्यापार आधारित कंपनी है, इसने
हाल ही में अपने वीडियो इम्प्रैशन की दर भी बढ़ा दी है, साथ
ही इन्होंने वैश्विक तौर पर भी बहुत सी कंपनियों के साथ नए कॉन्ट्रैक्ट साइन किये
हैं, जिनसे आज लोकतंत्र का सबसे बड़ा स्तंभ यानि प्रेस
सर्वाधिक प्रभावित हुआ है. भारत के संदर्भ में हम देखें तो प्रेस, राजस्व सभी पर फेसबुक का प्रत्यक्ष प्रभाव दिख रहा है. पूरा प्रशासनिक
ढांचा ही फेसबुक विज्ञापनों पर आधारित हो गया है, जो
लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है.
आज यह सोचने वाला विषय है कि यदि प्रजातंत्र के सभी आधार स्तंभों को ही अगर
एक विदेशी कंपनी पर निर्भर कर दिया जाएगा और वह कंपनी हमारे चुनावों की सुरक्षा की
बात विदेशी सेनेट में बैठकर कर रहा है, तो यह बेहद खतरनाक
होगा.
अमेरिका जैसे शहर में लोग लोकतंत्र पर सवाल उठा रहे हैं और वहीँ छोटे देशों
को डर में काम करना पड़ता है. इन सबके बीच लोकतंत्र भी प्रभावित हो रहे हैं. यदि
फेसबुक से जुड़े अर्थजगत की बात करें तो सबसे पहले व्हाट्सएप खरीदने के लिए सवाल
उठते हैं, फिर ये लोग हार्डवेयर कंपनी खरीदने लगे. कल को न जाने ये
कंपनी क्या-क्या खरीदना चालू कर दें. स्टॉक मार्किट में जो वैल्यू प्रभावित है. जो
लोग फाइनेंस मार्केट में हैं, तो वो इस बारे में जानते हैं
कि वहां मूल्यों को कितना बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया. यदि कल के दिन फेसबुक वैश्विक
रूप से बड़ी कंपनियों को खरीदना शुरू कर दे तो ये चीजें बुरी तरह से दुनिया भर की
अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकती हैं.
दूसरी चीज आती है साम्राज्य :
विश्व भर में किसी भी देश में किस हिस्से को प्रभावित करना है, वह
भी बिना निशान छोड़े, फेसबुक द्वारा अपने कंटेट को देशों में
छोड़ दिया, जो लोगों की जीवनचर्या को प्रभावित करता है और
अराजकता का माहौल तैयार कर देता है. जब तक प्रशासन और सरकार को पता चलता है तब
इनका काम हो चुका होता है. श्रीलंका और म्यांमार इसका जीवंत उदाहरण हैं. एक और
आसान सी प्रकिया है, जो लोग फेसबुक या गूगल को देखते हैं तो
वो पाते हैं कि इन पर कोर्ट केस चल रहे हैं, विदेशों में
इसके लिए सरकार की तरफ से जो प्रशन पूछे जाते हैं, वें
प्राथमिक प्रश्न पूछने लायक भी नहीं होते, जो दसवीं कक्षा का
छात्र भी बखूबी जानता है. इसके लिए सरकार को बताना होगा कि ये चीज आपको भी नुकसान
पहुंचा रही है और लोगों को भी नुकसान दे रही है.
फेसबुक के मुनाफे की कूटनीति का विस्तृत चित्रण करते
हुए भारतीयता पर पड़ने वाले इसके दुष्परिणामों की व्याख्या करते हुए राकेश जी ने
बताया :
फेसबुक और इस अर्थशास्त्र की सोच - जो ये बतलाती है कि दुनिया को सिर्फ एक
बड़े सत्ता के केंद्र से चलाया जा सकता है, सबसे बड़ा खतरा है.
पुराने अंग्रेज कॉलोनी के युग में भी यही सोच थी, अब फ़र्क बस
इतना है कि मुनाफ़ा बढ़ गया है.
पहला ख़तरा है.
डाटा उपनिवेशवाद
–
पहले सेना हथियारों के बल पर राजा और प्रजा को अपने इशारे पर चलाती थी, आज
डाटा के बल पर. श्रीलंका या म्यांमार जैसे छोटे देशो में देखें तो सरकारें या तो
इसको नियंत्रित करने में विफ़ल हो रही हैं या फिर मिल कर काम करने को मजबूर हैं.
लोग कमज़ोर हैं, आदत लग गई है, छुड़ाना
या किसी भी तरह का सुधार करना चुनाव हारना है.
ओबामा और जॉन मेक क्लेन के चुनाव में पुराने ख़यालात के मेक क्लेन बुरी तरह
हारे थे, उसी तरह ट्रम्प जी, जिनके पास
मार्केटिंग का तजुर्बा हिलेरी से कहीं ज्यादा था, अपने महा
अलगाववादी कैंपेन के तरीकों से जीते.
इन तजुर्बों को देख कर कोई भी देश का नेता चुप चाप इस खेल को खेलना ही पसंद
करेगा और देश को देश के बाहर से चलाना काफी आसान रहेगा. गूगल जिस तरह सी.आई.ए. के
एक इन्टरनेट पर सर्विलांस प्रोज़ेक्ट से शुरू हुआ था, फेसबुक भी इसी तरह एक
विश्व पर प्रभुत्व की सोच के साथ चलता है, आज जब कैंब्रिज
एनालिटिका की तरह डाटा चोरी करना मुश्किल हुआ है, तो हैकिंग
की घटनाएँ बढ़ रही हैं.
आध्यात्मिकता का हनन –
वेंकटेश
जी ने एक बार बोला था कि – “यार समझ नहीं आ रहा क्या हो रहा है. पहले “कुर्सी ख़ाली
करो जनता आती है”, का नारा काम कर
जाता था. आज सब नारे को लाइक कर के निकल जाते हैं. कुछ होता नहीं है.”
आज भारत के लोग अपने समाज से कट रहे हैं और बड़ा ही उथला सा जुड़ाव है. श्री
राम हों, कृष्ण हों, गाँधी हों, जीसस क्राइस्ट, पैगम्बर साहब, सबने
अपने अपने काल खंड में एक मज़बूत आध्यात्म लोगों को दिया, जिसका
मूल सत्य था.
सत्य की ख़ोज और सत्य की रक्षा, इसमें सबसे बड़ी बात थी,
अपने को पीछे रखना और सही आचार व्यवहार को आगे. फेसबुक इसके उलट
लोगों को स्वयं और व्यक्ति पूजा की ओर ले जाता है. आदर्श व्यवहार से ऊपर अहंकार आ
जाता है, जिससे इंसान आध्यात्मिक रूप से कमज़ोर और गुलामी को
प्राप्त होता है.
स्थानीय टेक्नोलॉजी का हनन –
व्हाट्सएप जैसी सुविधा जब फेसबुक के अधीन नहीं थी, तब
उसके मालिकों ने इसकी कीमत रखी थी एक डॉलर यानि आज के हिसाब से सत्तर रूपए साल और
इसमें ये आराम से अपना व्यापार चला रहे थे.
फेसबुक
को मुफ़्त में लोगों को बाँट देने से स्थानीय टेक्नोलॉजी का विकसित होना बड़ा ही
मुश्किल है.
अहम् ब्रह्मास्मि और गाँधी की पढाई करे हुए भारत के इंजीनियर इस तरह के काम
कर के खुले बाज़ार में कम्पटीशन कर ही नहीं सकते. आज एक छोटे शहर से निकला इंजीनियर
अपने समाज के लोगों को सही कीमत पर टेक्नोलॉजी की सुविधा दे नहीं सकता, क्योंकि
बड़े लोग फेसबुक के सिस्टम को मुफ़्त में बाँट रहे हैं.
आज का हमारा इंजीनियर, मार्केटिंग का प्रोफेशनल विदेशी कॉल
सेंटर या इसी फेसबुक के सिस्टम की शरण में जा कर बर्बाद हो रहा है. नोएडा में 3700
करोड़ का फेक लाइक सिस्टम, जब अभिनव मित्तल
जैसे उत्तर प्रदेश के इंजीनियर बना सकते हैं और आज जेल में पड़े हैं, तो सोचिये अगर फेसबुक सही तरीके से प्रतिस्पर्धा करे तो हमारे इंजीनियर
क्या नहीं कर सकते.
भाग 3 – फेसबुक से उत्पन्न खतरों के कुछ शोध युक्त समाधान
लोकतंत्र को फेसबुक के प्रभावों से सुरक्षित रखने के
लिये शकीर मनाज़िर ने समाधान रखते हुए कहा :
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि आपको उस पार्टी को विजयी करना है या उस नेता को
जिताना है, जो आपके लिए काम करता है. पूरा ढांचा खतरे की घंटी की तरह
है, जब तक जनता जमीनी स्तर पर गतिशील नहीं होगी, तब तक काम करना मुश्किल है. जीत और हार से पहले ये पता करना चाहिए कि किस
तरह के लोग है, वो किस तरह काम कर रहे हैं और कौन पैसा कमाने
बैठे हैं, इसके लिए शोध करके ही वोट देना चाहिए. लोगों को
फेसबुक छोड़ कर जमीनी स्तर से उठ कर काम करना चाहिए.
विज्ञापन, बढ़ा-चढ़ा कर चीजों को दिखाने से आप ऊपर उठ कर इस विषय पर
बात करके अपने अनुसार योग्य व्यक्ति को वोट दे सकते हैं. जनवरी-फरवरी से अपने
आन्दोलन के रूप में गांधी जी के पद पर चल कर सचेत होकर समाज में रहना है. लोगों के
बीच लोकतंत्र, अलोकतांत्रिक हो गया तो एक समय है, एक असहयोग है जो चुनाव में लोगों से सचेत रह कर काम करना चाहिए.
यदि बात फेसबुक के संबंध में सरकार की राय से दूर रहने की है तो इससे दूर
रहना चाहिए, ट्विटर और फेसबुक में जो काम करते हैं, वो अपने आपको सर्वोच्च समझते हैं. वर्ष 2019 को एक
प्रयोग के तौर पर रखना चाहिए, अगर हम एक हजार युवा भी कह दें
कि हम लक्ष्य के रूप में डिजिटल सत्याग्रह का प्रण करते हैं तो यह बड़ा संदेश हो
सकता है. प्रेस, डाटा सिक्योरिटी, ऐनालेसिस,
रैवेन्यू जैसे मुद्दों पर काम करना चाहिए. ये अत्यंत शक्तिशाली
अस्त्र होगा तो हम गांधी की बात को आगे बढ़ाने का काम कर सकते हैं.
राकेश जी ने भारतीय राजनेता,
आम जनता और सरकार के समक्ष इन विदेशी कंपनियों के उपनिवेशवाद से
बचने के लिए कुछ सुझाव रखें, जो इस प्रकार हैं :
समाज के नेताओं के लिए –
अगर आप सालों से क्षेत्र की सेवा कर रहे हैं, फेसबुक इत्यादि को
लाखों दे कर व्यर्थ के लाइक इत्यादि बटोरने की जगह अपना खुद का सिस्टम बनाएं. अपना
ब्लॉग या वेबसाइट कोई भी नेता बड़े ही सस्ते में बना सकता है, अपने विचार और कार्य सही तरीके से दस्तावेज़ित करें. अपने क्षेत्रवासियों
को उससे जोड़ें एवं सुरक्षित रखें और ख़ुद को भी इस करप्ट सिस्टम का भाग ना बनाएं.
गाँधी, कृष्ण, राम, पैगम्बर साहेब, क्राइस्ट या फिर किसी भी संत ने
पब्लिक के लाइक के लिए काम नहीं किया. सही तरीके से जीवन जिया और जो जिया उसे सही
तरीके से बता दिया.
आम जनता के लिए - इ-सत्याग्रह
आपको एक व्रत लेना होगा, जिसके चार नियम हैं और अवधि तीन
महीने. सफलतापूर्वक अगर हर नागरिक इसे करे तो भारत समाज के लिए सही रहेगा. जनवरी 2019
से...
1. गूगल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप का पूरी तरह से त्याग कर दें.
2. टेलीविज़न, रेडियो पर सिर्फ पुराने
गीत सुनें, किसी भी स्टार एंकर को गलती से भी ना सुनें.
चौबीस घंटे न्यूज़ चैनल का पूरी तरह परित्याग करें.
3. सिनेमा पूरी तरह छोड़ें, सिर्फ 90
से पहले का ही सिनेमा देखें. आज के अभिनेता अपना खेमा पकड़ चुके हैं.
4. छोटे बड़े किसी भी नेता की रैली या रैला में कतई ना जाएँ.
ये आपका ही पैसा है, आज नहीं तो कल देना पड़ेगा.
ऊपर दिए चार कार्य, आप रोज़मर्रा के कर्म करते हुए भी कर सकते हैं. अब आवश्यक
चीज़ें जो आपने करनी हैं.
1. चुनाव आयोग से अपने इलाके के उम्मीदवारों की लिस्ट निकलवा
लें. अपने इलाक़े में किसी नौजवान को ये ज़िम्मेदारी दें और वो ये लिस्ट सबको ला के
दे या किसी सार्वजानिक जगह पर लगा दे.
2. बाइक रैली, शोर शराबा, शक्ति प्रदर्शन करते नेता को सीधे लिस्ट से काट दें.
3. उस व्यक्ति को देखें, जो इलाके में
कम से कम पांच साल से एक्टिव हो.
4. उस व्यक्ति को देखें जो सुलभ हो, ऑफिस
जा कर या फ़ोन कर के देखें कि आप बात कर सकते हैं या नहीं, क्या
व्यवस्था है. क्या वह आपके समय की कीमत पहचानता है.
5. और कुछ सवाल पूछें. उनके बारे
में? राजनीति में आने का कारण? क्षेत्र
की कुछ मुख्य समस्याएँ? देश की कुछ मुख्य समस्याएँ? इस वैश्विक परिदृश्य में भारत के लिए उनकी योज़ना.
6. अब अपने बंधू-बांधवों, रिश्तेदारों
के साथ बैठ कर अपने देश के भविष्य के लिए इन उम्मीदवारों के बारे में आमने सामने
बात करें और सही निर्णय खुद लें.
इन दस नियमों का पालन करने के बाद ही वोट करें.
अंततः सरकार के लिए –
- यूरोपियन लोगों की तरह फेसबुक, गूगल, ट्विटर का जो भी भारत से जुड़ा काम है, उसको एक इंडिपेंडेंट रेगुलेटर के अन्दर ले कर आयें.
- सबको अभिव्यक्ति की स्वंत्रता मिले ये बहुत ज़रूरी है,
मगर रेगुलेटर ये सुनिश्चित करें कि भारत में सिर्फ भारत के अन्दर के
ही पब्लिशर कुछ पब्लिश कर पायें.
- पब्लिशर को भी कंट्रोल करना ज़रूरी है और फेसबुक, गूगल, ट्विटर को लोगों के आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस देना गलत होगा. सरकार को ई-सर्टिफिकेट बनाना चाहिए,
जो कोई भी भारत में रजिस्टर्ड कंपनी या व्यक्ति, इस्तेमाल कर के अपने आप को ऑथेंटिक पब्लिशर घोषित कर पाए. जिससे इसकी
प्राइवेसी सुरक्षित रहे.
- पब्लिशर के टूल्स और आम श्रोता के टूल्स अलग अलग हों,
ऑथेंटिक पब्लिशर ही कंटेंट पब्लिश करें और
लाइव स्ट्रीमिंग और एडवांस सुविधाओं का इस्तेमाल कर पाए.
- प्रत्येक विदेशी पब्लिशर पर विदेशी जर्नलिस्ट या मीडिया के
क़ानून लागू किये जाएँ.
- ये रेगुलेटर पूरी तरह सुनिश्चित करें कि भारत से संबंधित
कोई भी डाटा अलग साइजों में रखा जाए और इसका एक्सेस बाहर की एजेंसियो को ना हो. ये
लोग “हैक हो गया” आदि की कहानी सुनाते रहते हैं, ये सब बंद
हो.
- कोई भी पोस्ट जो 100 लोगों से ऊपर की
पहुँच बनाये उसको डिलीट नहीं कराया जा सके और ये पब्लिक आर्काइवल में सबके रिव्यु
के लिए उपलब्ध कराया जा सके. जिस किसी पब्लिशर ने किया? कितना
खर्चा हुआ? किस तरह के लोगों ने रियेक्ट किया?
- सबसे ज़रूरी है इन सर्विसेज को एक सही मूल्य पर दिया जाए,
जिससे भारतीय टेक्नोलॉजी उद्योग भी खड़े हो सकें और स्पर्धा कर सकें.
जिससे मोनोपॉली की जो स्थिति बनी है, वो टूटे और स्वदेशी
तकनीक मज़बूत हो. भारत का कम्पटीशन कमीशन इस पर काम करे. दिल्ली, बैंगलोर भारत में हैं और हम जैसे बिज़नेस ही भारत के लिए खड़े होंगे,
सिलीकॉन वैली नहीं खड़ी होगी.
- अगर सही मूल्य लगेगा तो पर्सनल डाटा लेने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, इसको मजबूती से लागू किया जाए.