अलीगढ़ । बहुत से इंसानों को कभी-कभी ऐसी सलाह मिल जाती है जो जीवन का सार ही बदल देती है। कुछ ऐसा ही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद के साथ हुआ। सर सैयद के जीवन बड़ा बदलाव मशहर उर्दू शायर असद उल्लाह बेग खां उर्फ गालिब की एक सलाह से आया। सर सैयद गए तो अपनी किताब की प्रस्तावना लिखवाने, लेकिन वहां गालिब ने उन्हें भविष्य के लिए कुछ करने की सलाह दे दी। इस सलाह का असर ये हुआ कि सर सैयद ने 1875 में मदरसा की नींव रखी। यही मदरसा 1920 में एएमयू की शक्ल में आया।
सर सैयद को गालिब ने दी थी नई शिक्षा की प्रेरणा
एएमयू के उर्दू एकेडमी के डायरेक्टर व यूनिवर्सिटी इतिहास के जानकार डॉ. राहत अबरार बताते हैं कि सर सैयद को किताब लिखने का शौक था। एक बार किताब की प्रस्तावना लिखवाने के लिए मिर्जा गालिब के पास गए थे। गालिब ने उन्हें टोका। कहा, पुराने खंडहरों में इतिहास ढूंढ रहे हो। आप, भविष्य देखिए। नई शिक्षा, नए विज्ञान चिंतन के बारे में सोचिए। इसके बाद ही सर सैयद के अंदर वैज्ञानिक चेतना पैदा हुई। सबसे पहले उन्होंने सात छात्रों से 1875 में मदरसा की शुरुआत की। इसके दो साल बाद ही 1877 में एमएओ कॉलेज की स्थापना की। इसके बाद तो सर सैयद ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1920 में एमएओ कॉलेज एएमयू बना। आज एएमयू में 37 हजार से ज्यादा छात्र पढ़ रहे हैं। एक दिसंबर 2020 को एएमयू ने सौ साल पूरे किए। दिसंबर माह को शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। 22 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शताब्दी समारोह को संबोधित किया। एक पुस्तक में ये भी जिक्र मिलता है कि एक बार मिर्जा गालिब मुरादाबाद से गुजर रहे थे। रात में वह एक सराय में रुक गए। मुरादाबाद में नौकरी कर रहे सर सैयद को जब पता चला तो वो उन्हें अपने घर ले आए। सुबह फिर उन्हें विदा किया।
कौन थे मिर्जा गालिब?
मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1796आगरा में एक सैनिक पृष्ठिभूमि वाले परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने पिता मिर्जा अब्दुल्ला बेग खान व चाचा मिर्जा नसरुल्ला बेग खान को बचपन में ही खो दिया था। गालिब का जीवनयापन अपने चाचा के मरणोपरांत के मिलने वाले पेंशन से होता था। चाचा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे। गालिब के दादा मिर्जा कोबान बेग खान, अहमद शाह के शासन काल में समरकंद (मध्य एशिया) से भारत आए थे। उन्होंने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और आगरा में बस गये। मिर्जा अब्दुल्ला बेग ने इज्जत उत निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे। पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निजाम के यहां काम किया। 1803 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय गालिब मात्र 5 वर्ष के थे। जब गालिब छोटे थे तो एक नव मुस्लिम वर्तित ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सानिध्य में रहकर गालिब ने फारसी सीखी। उन्होंने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू व फारसी में गद्य तथा पद्य लिखना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने फारसी और उर्दू में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है।