270 साल पुरानी घटना है, जब कुछ विदेशी
लोग केवल व्यापार के मकसद से भारत आए थे. टुकड़ों में बटीं भारतीय रियासतों के आपसी
मतभेद का लाभ उठाकर कब अंग्रेज शासनकर्ता और हम गुलाम बन बैठे, देशवासी चाह कर भी नहीं जान सके. घर का पूरा भेद पाकर देश को बांटना
विदेशियों की सोची समझी रणनीति का हिस्सा था, जिसके बलबूते
उन्होंने 200 वर्ष की गुलामी की नींव डाल दी.
लैरी कॉलिंस की
पुस्तक फ्रीडम एट मिडनाईट के अनुसार, "ब्रिटिश
राज के आखिरी दिनों में सर कौनराड कोर्फील्ड ने भारत की प्रिंसली एस्टेट के राजाओं
के साथ मिलीभगत कर तकरीबन चार टन गुप्त कागज़ातों को (जो उनकी कार गुजारियों और
प्रजा पर अत्याचारों के सबूत थे) खुद अपने सामने जलवाया था. ये वही कागज़ात थे
जिनके बल पर अंग्रेजों ने भारतीय रजवाड़ों को अपनी मुट्ठी में कर रखा था."वो
तो भला हो पंडित नेहरु का जिन्होंने लार्ड माउंटबेटन को अपने प्रभाव में लिया हुआ
था, उन्होंने तुरंत कार्यवाही की और सरदार वल्लभ भाई पटेल और
वी. पी. मेनन को स्टेट्स डिपार्टमेंट दिलवाया, जिससे भारत में
इन रियासतों का विलय हो पाया, नहीं तो ये सभी राजा आज़ाद
क्षेत्र घोषित कर सीधे ब्रिटेन के साथ अपना कारोबार चलाने की पूरी तैयारी कर चुके
थे.
वर्षों के संघर्ष के बाद हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त हुई, वह
आज फेसबुक, गूगल, ट्विटर जैसी विदेशी
कंपनियों के अधीन होकर रह गई. वर्तमान में आजाद भारत का सबसे कड़वा सच यही है कि इन
कंपनियों ने भी व्यापार के नाम पर देश का भेद (व्यक्तिगत डेटा) प्राप्त कर हमारी
मानसिकता को अपना गुलाम बना डाला है और सोने पर सुहागा यह है कि इन कंपनियों की
स्वार्थी प्रवृति को हम अपनी आज़ादी की अभिव्यक्ति के तौर पर स्पष्ट करते नज़र आते
हैं.
आज भी कई नेताओं, अभिनेताओं और प्रजा के कागजात गूगल, फेसबुक,
ट्विटर आदि कई एजेंसियों द्वारा जाने किन किन शक्तिओं के कब्ज़े में
हैं और आज कौन सा नेता या अभिनेता किनके इशारों पर चल रहा है कहा नहीं जा सकता. आज
ना कोई नेहरु दिखाई देता है और ना कोई पटेल या मेनन. सब चंद लाइक्स के बदले देश का
व्याहारिक डेटा तेज़ी से बाहर भेजने की होड़ में लगे हैं.
पिछले कुछ समय से भारत के 250 मिलियन फेसबुक
यूजर्स कैंब्रिज एनालिटिका मुद्दे से तो
परिचित हो ही चुके हैं, यूं तो 2016 के
अमेरिकी इलेक्शन से ही फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल मीडिया
साइट्स पर सवाल उठने लगे थे, परन्तु जिस प्रकार यूजर्स के
डेटा चोरी से राजनैतिक गठजोड़ का पूर्व निर्धारित आलेख दुनिया के सामने आया;
वह वाकई चौकानें वाली घटना थी.
फेसबुक के इतिहास की सबसे बड़ी डाटा चोरी की वजह बनी कैंब्रिज एनालिटिका की भारतीय सहायक कंपनी ओवलेनो बिजनेस इंटेलिजेंस (OBI) पर
भी आरोप लगाये जा रहे है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में
भारतीय फेसबुक यूजर्स का निजी डाटा बड़ी मात्रा में जुटाया गया और विभिन्न राजनैतिक
दलों को ललचाने का भरसक प्रयत्न किया गया. यह
केवल प्रयास था या वास्तविकता इस पर बहस लगातार जारी है परन्तु गौरतलब तथ्य यह है
कि भारतीय यूजर्स डाटा भविष्य में लोकतंत्र की मर्यादा को क्षति पहुँचाने के लिए
एक अचूक हथियार की भांति उपयोग में लाया जा सकता है, तात्पर्य
यह है कि विदेशी ऐप्स की गुलामी हमें लोकतंत्र से तानाशाही तंत्र की और धकेल सकती
है.
डिजिटलाईजेशन या इडियटोलाईजेशन
वर्ष 2015 में जब डिजिटल इंडिया की लहर भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा लाई गई, तब
सिलिकॉन वैली की तमाम कंपनियों ( फेसबुक, गूगल इत्यादि ) ने
इसका पुरजोर समर्थन किया और उनके इस समर्थन का स्वागत तमाम भारतीय फेसबुक यूजर्स
ने मार्क
ज़करबर्ग की तर्ज पर प्रोफाइल पिक्चर को डिजिटलाईजेशन के तिरंगें में लपेट कर सहर्ष
किया. यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि फ्री सेवाओं
के नाम पर ये विदेशी कंपनियां हमें लॉलीपोप पकड़ा रहीं हैं और हर साइड इफ़ेक्ट से
अनजान बन हम इनका आनन्द प्राप्त कर रहें हैं, अब इसे
डिजिटलाईजेशन कहेंगें या इडियटोलाईजेशन, यह आत्ममंथन का विषय
है.
वर्तमान में हमारे देशवासी आरक्षण, सांप्रदायिकता,
जातिगत हिंसा, धर्मगुरुओं आदि से सम्बन्धित
मुद्दों को तो बढ़चढ़ कर उठाते हैं, समझदारी भरी दलीलें देते
नजर आते ह परन्तु जब बात फेसबुक, ट्विटर, गूगल जैसी बाहर की संस्थाओं द्वारा हमारी निजता को आहत करने की आए तो
हमारी जागरूक, सभ्य नागरिक वाली इमेज #deletefacebook
वाली पोस्ट करने तक ही सीमित रह जाती है.
जहां हमें आरटीआई, प्रधानमन्त्री
को पत्र या विभिन्न समाचार पत्र पत्रिकाओं में लेखों के माध्यम से जनता और सरकार
को अवगत कराना चाहिए, वहां हम पोस्ट्स के संसार
में ही गोते खाते रहते हैं.
फेसबुक की प्राइवेसी पॉलिसी द्वारा यूजर्स बन रहे
कंपनी प्रोडक्ट
फेसबुक से जुड़ी
तमाम नीतियों की लम्बी चौड़ी लिस्ट कहीं से भी यह
नहीं बताती कि यूजर्स का डेटा कितना सेफ है. फेसबुक चलाते हुए किसी के भी द्वारा
की गयी दखलंदाजी हमें हमारी निजता में खलल प्रतीत होती है परन्तु मनोरंजन के
उद्देश्य से वैश्विक मेलजोल को बढ़ाने व अनुभवों के साझिकरणहमारी
लोकेशन, कॉल डिटेल्स, निजी मैसेजस, चैट रिकॉर्ड व अन्य व्यक्तिगत जानकारियां भी खंगाल डाले तो भी यह हमारे लिए समस्या का विषय नहीं. व्यवहारिकता का यह
दोगलापन शायद सबसे बड़ा कारण है कि वर्तमान में हम आसानी से इन विदेशी एप्स का
प्रोडक्ट बनते जा रहे हैं.
द
वाशिंगटन पोस्ट की हालिया रिपोर्ट से यह तथ्य भी सामने आया है कि उपद्रवी हैकर्स
द्वारा फेसबुक सर्च टूल्स का गलत इस्तेमाल करते हुए यूजर्स की निजी जानकारियों पर
अतिक्रमण किया गया. फेसबुक ने आगे जानकारी देते हुए
स्पष्टीकरण दिया कि डार्क वेब के माध्यम से ईमेल आईडी और फ़ोन नंबर्स को ट्रेस करते
हुए फेसबुक के सर्च बॉक्स की सहायता से यूजर्स की व्यक्तिगत जानकारियों को उनकी
प्रोफाइल द्वारा प्राप्त किया गया.
निरीक्षण पूंजीवाद का शिकार बनता भारत
सार्वभौमिक सत्य है कि भारत को अपनी विद्वता व उचित तर्कक्षमता के कारण
विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त है. वर्तमान में हम भारतीय आकाश से लेकर पाताल तक से
जुड़ी अथाह सूचनाओं को वैज्ञानिकता के नजरियें से नापते दिख रहे हैं, विकासशील
से विकसित देश की संकल्पना की दिशा में हर रोज एक कदम आगे बढ़ रहे हैं, परन्तु व्यंग्यात्मक तथ्य यह है कि केवल कुछ ही वर्षों में फेसबुक
जैसी कंपनियां फ्री सेवाएं जुटा कर विश्व के खरबपतियों की लिस्ट में नामाकंन करा
लेती हैं और हम भारतीय उनकी वाहवाही करते नजर आते
हैं.
हम अपनी ही प्राइवेसी इन कंपनियों को थमाकर इन्हीं की प्रगति की तारीफों के
पुल्लिन्दें बांधकर निरीक्षण पूंजीवाद का हिस्सा बनते
चले जा रहे है, जैसे हमारी वर्षों पुरानी तर्कसंगत विचारधारा
को विदेशी शो-ऑफ का जंग लग गया हो. इन सबका रंजमात्र भी अफ़सोस नहीं करना दर्शाता
है कि एक नई डिजिटल गुलामी ने हमें किस कदर अपनी गिरफ्त में ले रखा है?
एक चिंतन योग्य अवधारणा
Your digital
identity will live forever Because there is
no delete button.
- ( Eric Schmidt )
सच ही है, हमारी डिजिटल पहचान का मिट पाना असंभव है, क्योंकि सोशल मीडिया की ब्लैक होल सी दुनिया में इसके लिए किसी प्रकार का
डिलीट बटन बना ही नहीं है और भविष्य में ऐसा होना भी मुमकिन नहीं दिखाई देता.
वास्तव में फेसबुक की फ्री सेवाओं का सच उतना ही गहरा है जितना टाइटैनिक को जलमग्न
कर देने वाले आइसबर्ग का स्वरूप था. भारतवासियों के लिए इस समस्या की संरचना को
समझना जटिल किन्तु नितांत आवश्यक है. फेसबुक पर #deletefacebook की पोस्ट से अपनी टाइमलाइन सजाने और ट्विटर पर एंटी फेसबुक ट्वीट करने से
लाख गुना बेहतर है कि आप स्वयं को इन विदेशी ऐप्स की जद से बाहर निकालने का प्रयास
करें.
बिना सोचे समझें इन विदेशी कंपनियों के गुलाम बनने से बेहतर है कि हम स्वयं
से प्रश्न करें कि हम फेसबुक के लिए क्या भुगतान कर रहे हैं? यदि
भुगतान करने वालों को ग्राहक कहा जाता है तो सही मायनों में विज्ञापनदाता फेसबुक
के ग्राहक हुए जो अपने विज्ञापनों के लिए भुगतान करते हैं. इस प्रकार हम केवल इन
सब कंपनियों के उत्पाद भर है जिनकी निजी जानकारियों को फेसबुक, गूगल द्वारा विज्ञापनदाताओं को बेचा जा रहा है. अतः डिजिटलाईजेशन की अंधी
दौड़ में स्वयं को विदेशी ऐप्स का गुलाम होने से बचाएं.